Wednesday 3 October 2012

"ऑनर किलिंग"

अपने गालों पर उभरी
उन पांच उँगलियों को देख
उसे याद आया ....                     

दी थी कभी उसने 
अपनी ऊँगली 
उन छोटे छोटे नर्म गुद्दरे हाथों में 
जो सीख रहा था अपनों के अहसास को  

बरबस मुस्कुरा देती 
उस मखमली छुवन से 
उस मुलायमी पकड़ से 

खुद एक गोद से उतर 
लडखडाते क़दमों से 
उसने गोद ली थी 
उम्र भर की एक ज़िम्मेदारी...
वो बड़ी बहन हो गई थी 

तीन रोज़ की रातों को मिटा 
एक नाम रखा ...
बार बार उसी नाम को दोहरा 
जाने क्या क्या बातें करती 
वो भी तो मुस्कुराता था 
भर जाती भीतर तक 
उस मुस्कान से ....

निश्छल चमक वाली आँखों को
इक टुक निहार
खुद ही नजर उतार लेती
बावरी कभी कभी माँ सी हो जाती थी

वही आज "जड़" हो सोच रही
क्या प्रेम वाकई इतना बड़ा गुनाह है
प्रेम - एक भाव
जिसे जीने की चाह हो गया अपराध
जिसने मिटा दी
स्नेह की सभी स्मृतियाँ !!

लगातार रिसते  बेरंग लहू से
चेहरा लहुलुहान हो रहा था
सनती रही रात भर उसी लहू में

कदमो में आखिरी साँसों के लिए
कुछ तड़प रहा था
और फिर.....दम तोड़ गया |

वो उठी ..
मिटाने लगी सारे सबूत
पानी की छाप्क्किया मार

कुछ ख़ास थोड़े ही हुआ था ..
बस..एक रिश्ते की मर्यादा की
मान के लिए कर दी गई थी
"ऑनर किलिंग "




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