ब्लॉग में इस्तेमाल की गई सभी तस्वीर गूगल सर्च इंजिन से ली गई है जिसके अधिकारों के बारे में यदि कोई संदेह है तो ऑथर से संपर्क करे आग्रह पर हटा ली जाएँगी.
Monday 16 September 2013
दस्तक ...
मैंने
कितनी ही दफ़ा
दस्तक दी
तुम आये
हर बार आये
मेरी
हर दस्तक पर
तुम आये ...
अब…
जबकि मैं
नहीं देती कोई दस्तक ...
क्या
तुमने सोचा ?
अब
दस्तक क्यों नहीं आती ...
कितनी ही दफ़ा
दस्तक दी
तुम आये
हर बार आये
मेरी
हर दस्तक पर
तुम आये ...
अब…
जबकि मैं
नहीं देती कोई दस्तक ...
क्या
तुमने सोचा ?
अब
दस्तक क्यों नहीं आती ...
***झूठा ***
उसने
मेरे सामने ही
अपनी दोनों उंगलियाँ
ऊपर उठायी
और दोनों कानों में
डाल दी....
फिर जोर- जोर से
चिल्लाने लगा ...
मैंने जो कहा
वही सच हा i
मैं ही सच जानता हूँ....
क्योंकि अब तुम झूठ कहोगी
इसलिए
वो मैं नहीं सुनूंगा ..
जो मैंने सुना नहीं
वह तो सच हो न सकेगा ..
वो दहाड़े मार- मार
हँसता रहा….
कहता रहा ..
मैंने सच कह दिया।
फर पीठ मोड़
दौड़ लिया।
मैं अपनी बीच बीच की
लेकिन ...
मगर ...
अरे सुनो तो !!
की नाकाम कोशिशों के बाद
हतप्रभ
बड़ी बड़ी आँखों से
उसे जाते उसे
देखती रही...
वँही कड़ी सोचती रही
इस कदर भी क्या
कोई खुद से
झूठ बोल सकता है !!!
उसने
मेरे सामने ही
अपनी दोनों उंगलियाँ
ऊपर उठायी
और दोनों कानों में
डाल दी....
फिर जोर- जोर से
चिल्लाने लगा ...
मैंने जो कहा
वही सच हा i
मैं ही सच जानता हूँ....
क्योंकि अब तुम झूठ कहोगी
इसलिए
वो मैं नहीं सुनूंगा ..
जो मैंने सुना नहीं
वह तो सच हो न सकेगा ..
वो दहाड़े मार- मार
हँसता रहा….
कहता रहा ..
मैंने सच कह दिया।
फर पीठ मोड़
दौड़ लिया।
मैं अपनी बीच बीच की
लेकिन ...
मगर ...
अरे सुनो तो !!
की नाकाम कोशिशों के बाद
हतप्रभ
बड़ी बड़ी आँखों से
उसे जाते उसे
देखती रही...
वँही कड़ी सोचती रही
इस कदर भी क्या
कोई खुद से
झूठ बोल सकता है !!!
Tuesday 3 September 2013
इसलिए कि तुम जान न सको!!
आज
जबकि इजाद हो चुके है
सौ सौ तरीके ….
शब्दों को
तुम तक पहुँचाने के.
मैं छुपा लेती हूँ
सब कुछ।
नहीं चाहती
जान सको तुम
कुछ भी.…जो मेरा है।
जबकि चाहती हूँ
तुम तक पहुँचती रहे
पल पल की
मेरी हर खबर ….
खबर पहुँचने
और पहुँचाने के अंतर को
बरकरार रखना चाहती हूँ।
आजकल अपने ख्यालों,
ख़ुशी , ग़म
अपने हर एहसास को
सबके सामने रखने से
कतराने लगी हूँ।
मेरे हाथ
कुछ लिखते-लिखते
सब कुछ
बेकस्पेस कर देते है।
मुझे ये फ़िक्र नहीं
हज़ारों लोगों तक
पहुँचने वाले मेरे शब्दों पर
कोई सवाल न खड़ा कर दें .…
कौन है ? क्या हुआ ? किसके लिए ?
मुझे
उन हज़ारों में
एक ही शख्स का ध्यान रहता है.…
कंही वो
मेरे शब्दों में
अपना नाम न पढ़ ले …
और जान न जाए कि
मैं आज भी उसे लिखती हूँ।
जबकि इजाद हो चुके है
सौ सौ तरीके ….
शब्दों को
तुम तक पहुँचाने के.
मैं छुपा लेती हूँ
सब कुछ।
नहीं चाहती
जान सको तुम
कुछ भी.…जो मेरा है।
जबकि चाहती हूँ
तुम तक पहुँचती रहे
पल पल की
मेरी हर खबर ….
खबर पहुँचने
और पहुँचाने के अंतर को
बरकरार रखना चाहती हूँ।
आजकल अपने ख्यालों,
ख़ुशी , ग़म
अपने हर एहसास को
सबके सामने रखने से
कतराने लगी हूँ।
मेरे हाथ
कुछ लिखते-लिखते
सब कुछ
बेकस्पेस कर देते है।
मुझे ये फ़िक्र नहीं
हज़ारों लोगों तक
पहुँचने वाले मेरे शब्दों पर
कोई सवाल न खड़ा कर दें .…
कौन है ? क्या हुआ ? किसके लिए ?
मुझे
उन हज़ारों में
एक ही शख्स का ध्यान रहता है.…
कंही वो
मेरे शब्दों में
अपना नाम न पढ़ ले …
और जान न जाए कि
मैं आज भी उसे लिखती हूँ।
Monday 2 September 2013
काश कि
धम्म से गिरती
और छन्न से टूट जाती
बिखर जाती
टुकड़ों टुकड़ों में.…
और साथ ही चुप हो जाती
सारी अनुभूतियाँ...
फिर मैं ठीक हो जाती।
लेकिन ऐसा न हुआ .
मुझे तो लगा
जैसे कि
मेरी पीठ से खींच लिया हो
वो स्तम्भ
जिसने मुझे सहेज रखा था.….
पैरों में डाल दिए गए हो
लोहे के
बड़े बड़े गोले
जिन्हें मुग़ल -ए - आज़म में देखा था
सर के अन्दर
बांयी आँख के ठीक ऊपर
ठक ठक ठक
मुसलसल चलता रहा हथौड़ा
रात भर.…
कोई पीछे से
आकर मेरे मुंह -नाक
जोर से दबोच,
बंद कर देता,,,
मिनट-मिनट के अंतराल पर
बची-कुची
पूरी ताकत झोंक
मैं एक सांस लेती।
हुह !!
फिर निढाल हो गिर जाती
खड़े रहने की तमाम कोशिशें
मेरे साथ ही लड़खड़ा जाती,,,
शारीर की सभी नसों को
एक साथ खींच
बाँध दिया गया हो मुझे
जंहा का तंहा पड़ा रहने के लिए.…
रात
जिस्म की नमी निचोड़
छापती रही
हु ब हु वैसी
जैसी मैं गिरी थी
साथ घंटे पहले
बिना किसी हरक़त के.…
उस वक्त तुम्हारा कोई
ज़िक्र न था.…
दूसरों को जताने से पहले
जाने कितनी ही दफा
मैंने खुद से कहा.…
मैं ठीक हूँ। मैं ठीक हूँ। मैं ठीक हूँ।
खींचने लगी
रात-रात में सौ गुना बढ़ गए
किसी वजन को.….
अगली सुबह आईने में
पहली बार
खुद को सांवला नहीं
काला पाया।
और पहली ही बार
ये भी जाना
एकाएक की तब्दीलियाँ
कई चटकने
ला देती है।
धम्म से गिरती
और छन्न से टूट जाती
बिखर जाती
टुकड़ों टुकड़ों में.…
और साथ ही चुप हो जाती
सारी अनुभूतियाँ...
फिर मैं ठीक हो जाती।
लेकिन ऐसा न हुआ .
मुझे तो लगा
जैसे कि
मेरी पीठ से खींच लिया हो
वो स्तम्भ
जिसने मुझे सहेज रखा था.….
पैरों में डाल दिए गए हो
लोहे के
बड़े बड़े गोले
जिन्हें मुग़ल -ए - आज़म में देखा था
सर के अन्दर
बांयी आँख के ठीक ऊपर
ठक ठक ठक
मुसलसल चलता रहा हथौड़ा
रात भर.…
कोई पीछे से
आकर मेरे मुंह -नाक
जोर से दबोच,
बंद कर देता,,,
मिनट-मिनट के अंतराल पर
बची-कुची
पूरी ताकत झोंक
मैं एक सांस लेती।
हुह !!
फिर निढाल हो गिर जाती
खड़े रहने की तमाम कोशिशें
मेरे साथ ही लड़खड़ा जाती,,,
शारीर की सभी नसों को
एक साथ खींच
बाँध दिया गया हो मुझे
जंहा का तंहा पड़ा रहने के लिए.…
रात
जिस्म की नमी निचोड़
छापती रही
एक आकृति,,,
हु ब हु वैसी
जैसी मैं गिरी थी
साथ घंटे पहले
बिना किसी हरक़त के.…
उस वक्त तुम्हारा कोई
ज़िक्र न था.…
दूसरों को जताने से पहले
जाने कितनी ही दफा
मैंने खुद से कहा.…
मैं ठीक हूँ। मैं ठीक हूँ। मैं ठीक हूँ।
खींचने लगी
रात-रात में सौ गुना बढ़ गए
किसी वजन को.….
अगली सुबह आईने में
पहली बार
खुद को सांवला नहीं
काला पाया।
और पहली ही बार
ये भी जाना
एकाएक की तब्दीलियाँ
कई चटकने
ला देती है।
Subscribe to:
Posts (Atom)