Wednesday 12 June 2013

इस बार जो तुम लिखना ...



इस बार जो तुम लिखना,
तो लिखना ...
मेरा पहरों पे टकटकी लगा बैठना ...

एक पुकार की
दरकार में
हज़ारों को अनसुना करना ..

तुम लिखना
कि देखा है तुमने
मुझे
अपने पीठ पर गिरते हुए सायों में ...

सुना है मुझे
जवाब न दिए गए
ब्लेंक कॉल्स में ....

मैं अरसे से  सुनना चाहती हूँ
तुममे अपनी शामिलात ...

इस बार जो तुम लिखना
तो लिखना
मेरी मौजूदगी
बेबात आ जाने वाली मुस्कुराहटों में

जैसे मैं लिख चुकी हूँ
तुम्हारी "गैर मौजूदगी "
कभी न टूटने वाले ख्यालों में ...


Tuesday 11 June 2013

उम्मीद

तुम्हारा कहना
उम्मीद न रखो कोई
कानो में यूँ गिरता है
जैसे कह दिया हो
सुखो लो ....

सुख लो तुम
अगर बना रखा है
तुमने कोई महासागर
दिल के किसी भी कोने में

पाट लो मरियाना ..
सुखाये गए
उस समन्दर की गर्द से ...

सीख लो उभारना
कि किसने देखा
किसी का डूबना ...

कभी कभी तो लगता है
गिर गई होऊं
जैसे बिस्तर के कोने पर
सोते हुए ...

या माँ ने ही
झकझोर के उठाया हो
"क्या बडबडा रही है;
क्या नहीं हो सकता ?"

सकपका फिर से
आँखे मूँद लेती हूँ ..
काट आती हूँ चक्कर
समुंद्री हिलोरों पे ...

बहुत  ही जल्दी में
भरने लगती हूँ
काशनी रंग
उन रिक्तताओं में
जंहा साहिलों के
निशाँ मिलते है

और तुम्हे आवाज़ दे
लौट आती हूँ
यहीं उदासी लिए
नीले बिछोने पर ...

तुम्हारा न आना
मेरी पुकार कम नहीं करता
फिर से वही "नाम" लेती हूँ
वापिस उदास लौट आने को

सिर्फ इसी उम्मीद में
इक रोज़
तुम आओगे ..देखोगे ..
मेरी कोशिशें ..
समंदर को फूंक मारते हुए ..

तब ...
आँखों में भर चुके
आधे समन्दर की
कसम खाकर
कर दूंगी तुम्हे निशचिंत
अब न पुकारूंगी तुम्हे ...

और तुम कहते हो 
सुखा लो महासागर .....

Monday 10 June 2013

"पुनरावर्ती"

मेरा मन
आज भी
एक अनजान टापू पर
बसा रहता है ...

जिसकी निर्जनता पर
झूम झूम
बिखेरती हूँ
अपनी कल्पनाएँ ..

समन्दर की
हज़ार गडगडाहटों के बीच
खुल कर
ठहाके लगाती हूँ

जानती हूँ
मुझे मेरे एकांत से
इतना भय नहीं
जितना
इस समन्दर से तय है

बारिश की बूँद सा
मेरा वजूद
हर बार कतराता है
इस भीमकाय विशालता से

अपने इस भय में
दुआएं लेता है
अपनी अपूर्णता की ..

की मंजिल से पहले ही
घुल जाना चाहता है
फिजाओं में
नमी बन के ....

धूप  का साया
अक्सर मेहरबान रहता है
मेरी खिलखिलाहटों पर

फिर अचानक
समन्दर और भी
नमकीन हो जाता है

टापू के एकांत में
खुद को
यूँ ही दोहराती रहती हूँ

लहरों सी लौट लौट कर
किनारों से उनका
हाथ मांग लेती हूँ
एक बार फिर
किसी
"पुनरावर्ती" के लिए ....