Friday 22 November 2013

"परायी"

अब ठीक हैं
ऐसे न कह सकूंगी कि..
हाँ !!
बांध दिए गए थे मेरे हाथ..
आँखे तरेर कर

और
टोक दिया था क़दमों को
दौड़ने से..

फिर ताने मार
मुंह बना,  कहा गया था..

" देखा !!
तुझसे छोटा है...
फिर भी तुझसे तेज़ दौड़ गया "

नहीं
मैं किसी को नहीं बताउंगी।

कि
 माँ ने कहा था -
"तुझे क्या लाम पर जाना हैं ? "

और उढ़ेल दिया था
डिब्बे में बचा
आखिरी चम्म्च का "घी"

भाई की थाली में...

जिसे मैं ही
उसकी चारपाई तक
देकर आयी थी।

किसने देखा

जब तक वह डकार लेकर
शाम तक उसी "खाट" पे
सोता रहा....

मैंने धुलवाएं थे
बुझे मन से 'गंदे कपड़े'

तुम तो जानते ही हो
मैं सीख रही थी
सब कुछ
कि पराये घर जाना हैं।

जबकि मैं सोच रही थी
कब जाउंगी.. अपने घर...

यंहा तो बड़ी "परायी" सी हूँ... मैं।


कौतुहल

मेरी आँखों में
छुप के बैठे कौतुहल

पलकों पीछे से
उचक-उचक
करते रहते हैं तांक-झाँक।

हर दूसरी नज़र से
नज़र बचा
कभी औट ले लेते ..
कभी छलांग सी मारते
धम्म से सामने
आ जाते हैं।

मैं ख़ामोश
इनकी अठ्ठखेलियां देख
बरबस मुस्कुरा देती हूँ।

लोग खामखां ही
सोचने लगते हैं
लड़की  बड़ी " शैतान " हैं।