Thursday 29 August 2013

हर किस्से का अंत
एक- सा क्यों होता है ??
आज ही तो खुला था वो किस्सा,,,


जिसके आखिरी पन्ने तक 
पहुँचते पहुँचते 
कोफ़्त होने लगी थी 
खुद के पढ़ा लिखा होने पर.…

ध्यान कंहा रहता है ??
रह-रह कर याद करने लगती हूँ.… 

शुरुआत किस तरह हुई ?

Thursday 22 August 2013

सफ़र

अभी अभी
एक शुष्क पथरीली
पहाड़ी से
उतर कर लौटी हूँ मै।

जंहा अपनी जिंदगी
की एक खुबसूरत शाम
मैंने यूँ ही
कुर्बान कर दी।

पहाड़ी पर ठहरा हुआ वक्त
ऊपर से ही
आवाजें दे दे कर
बार बार
मेरे कदमो को बेचैन कर रहा है.…

और मैं
उन पुकार को
अनसुना करने का छद्म भारती हूँ।

मेरे थके हुए पैर
कदम भर भी चलने से
इनकार करते हुए
मुझे धकेलते है
पास में रखे हुए पत्थर पर
बैठने के लिए.….

शरीर मुझे निष्ठुर कर
मेरी आत्मा बदल देता है।

पहाड़ी पर ठहरा मेरा वक्त
बिछड़े बच्चे सा क्रन्दन करता है
जाने कैसे बेबस हूँ मैं.…

अपनी शक्तियां जानती हूँ
मेरी उर्वरता
फिर से कोई शाम
महका सकती है
कानो में गूंजती
इन क्रुन्दन के बावजूद
आँखों में नयी मुस्कुराहटें
भर सकती है ये.….

मेरी शक्तियां
मुझे और निढाल कर देती है
वन्ही पत्थर पर
पड़े रहने के लिए

खुद को ढीला छोड़
लेट जाती हूँ
आँखे मूँद
अपनी तृप्तता, प्यास
सोच, बेफिक्री
दो लाशो का शोक (अतीत एवं भविष्य )
एक बूँद में बहा देती हूँ।

और इस बार
सच में एक लम्बी सांस भर
उस हरियाये पर्वत को निहारती हूँ

जंहा चढ़ना और उतरना
इतना दुर्गम न होगा
जितना की
इस शुष्क पथरीली पहाड़ी पर रहा.…

अपने पंजो को
गोद में रख
खूब दबाती हूँ
तैयार करती हूँ खुद को
एक नए सफ़र के के लिए.…


Wednesday 21 August 2013

प्रस्ताव

एक मुलाक़ात 
एक प्रस्ताव 
तुम में भरा हुआ था 
डर.… 
चिंता 
खामोशी

मैं लबरेज थी 
उम्मीद 
मुस्कान 
और बेफिक्री से.…

तुमने प्रस्ताव रखा 
मैंने स्वीकार किया। 

फिर आपस में बदल लिया 
हमने खुद को.…. 

तुम मुस्कुराए 
उम्मीदों से भरे हुए 
बेफिक्र हो चले.…

और मैं.…. 
अपने डर की चिंता लिए हुए 
खामोश वन्ही खड़ी रही.… 

तुम्हे जाते हुए देखने के लिए 

मेरी मोहब्बत के वो 
पहले उपहार थे 

एक -दूजे के लिए.…. 

Sunday 18 August 2013

नाम.

मैं जब तब
उकेरने लगती
अपनी उंगलियाँ

और लिख देती
अपना नाम.….
होश-ओ- हवास से  दूर
ख्यालों में डूबे हुए भी

मुझे पसंद रहा
छप्प छप्प करते
कमर तक के पानी में
उंगलियाँ घुमा घुमा

अपना नाम लिखना

उबासियाँ लेती
अलसाई दोपहर में
औंधे पड़े गिलास से
जब - जब पानी बहा
मैं फौरन लिखने लगती
अपना नाम.…

बार बार.…… हर बार
दिवाली की फुलझड़ी
कोई पीठ
ऑस में भीगी खिड़की
धूल में डूबा शीशा

मेरी पहली तख्ती
हो जाते रहे
और पहला लव्ज़
मेरा नाम.……

फिर जाने किस मोड़ पर
मेरा वो नाम खो गया
और मैं लिखने लगी

तुम्हारा नाम.……