Monday 10 June 2013

"पुनरावर्ती"

मेरा मन
आज भी
एक अनजान टापू पर
बसा रहता है ...

जिसकी निर्जनता पर
झूम झूम
बिखेरती हूँ
अपनी कल्पनाएँ ..

समन्दर की
हज़ार गडगडाहटों के बीच
खुल कर
ठहाके लगाती हूँ

जानती हूँ
मुझे मेरे एकांत से
इतना भय नहीं
जितना
इस समन्दर से तय है

बारिश की बूँद सा
मेरा वजूद
हर बार कतराता है
इस भीमकाय विशालता से

अपने इस भय में
दुआएं लेता है
अपनी अपूर्णता की ..

की मंजिल से पहले ही
घुल जाना चाहता है
फिजाओं में
नमी बन के ....

धूप  का साया
अक्सर मेहरबान रहता है
मेरी खिलखिलाहटों पर

फिर अचानक
समन्दर और भी
नमकीन हो जाता है

टापू के एकांत में
खुद को
यूँ ही दोहराती रहती हूँ

लहरों सी लौट लौट कर
किनारों से उनका
हाथ मांग लेती हूँ
एक बार फिर
किसी
"पुनरावर्ती" के लिए ....

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