Tuesday 11 June 2013

उम्मीद

तुम्हारा कहना
उम्मीद न रखो कोई
कानो में यूँ गिरता है
जैसे कह दिया हो
सुखो लो ....

सुख लो तुम
अगर बना रखा है
तुमने कोई महासागर
दिल के किसी भी कोने में

पाट लो मरियाना ..
सुखाये गए
उस समन्दर की गर्द से ...

सीख लो उभारना
कि किसने देखा
किसी का डूबना ...

कभी कभी तो लगता है
गिर गई होऊं
जैसे बिस्तर के कोने पर
सोते हुए ...

या माँ ने ही
झकझोर के उठाया हो
"क्या बडबडा रही है;
क्या नहीं हो सकता ?"

सकपका फिर से
आँखे मूँद लेती हूँ ..
काट आती हूँ चक्कर
समुंद्री हिलोरों पे ...

बहुत  ही जल्दी में
भरने लगती हूँ
काशनी रंग
उन रिक्तताओं में
जंहा साहिलों के
निशाँ मिलते है

और तुम्हे आवाज़ दे
लौट आती हूँ
यहीं उदासी लिए
नीले बिछोने पर ...

तुम्हारा न आना
मेरी पुकार कम नहीं करता
फिर से वही "नाम" लेती हूँ
वापिस उदास लौट आने को

सिर्फ इसी उम्मीद में
इक रोज़
तुम आओगे ..देखोगे ..
मेरी कोशिशें ..
समंदर को फूंक मारते हुए ..

तब ...
आँखों में भर चुके
आधे समन्दर की
कसम खाकर
कर दूंगी तुम्हे निशचिंत
अब न पुकारूंगी तुम्हे ...

और तुम कहते हो 
सुखा लो महासागर .....

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