Thursday 22 August 2013

सफ़र

अभी अभी
एक शुष्क पथरीली
पहाड़ी से
उतर कर लौटी हूँ मै।

जंहा अपनी जिंदगी
की एक खुबसूरत शाम
मैंने यूँ ही
कुर्बान कर दी।

पहाड़ी पर ठहरा हुआ वक्त
ऊपर से ही
आवाजें दे दे कर
बार बार
मेरे कदमो को बेचैन कर रहा है.…

और मैं
उन पुकार को
अनसुना करने का छद्म भारती हूँ।

मेरे थके हुए पैर
कदम भर भी चलने से
इनकार करते हुए
मुझे धकेलते है
पास में रखे हुए पत्थर पर
बैठने के लिए.….

शरीर मुझे निष्ठुर कर
मेरी आत्मा बदल देता है।

पहाड़ी पर ठहरा मेरा वक्त
बिछड़े बच्चे सा क्रन्दन करता है
जाने कैसे बेबस हूँ मैं.…

अपनी शक्तियां जानती हूँ
मेरी उर्वरता
फिर से कोई शाम
महका सकती है
कानो में गूंजती
इन क्रुन्दन के बावजूद
आँखों में नयी मुस्कुराहटें
भर सकती है ये.….

मेरी शक्तियां
मुझे और निढाल कर देती है
वन्ही पत्थर पर
पड़े रहने के लिए

खुद को ढीला छोड़
लेट जाती हूँ
आँखे मूँद
अपनी तृप्तता, प्यास
सोच, बेफिक्री
दो लाशो का शोक (अतीत एवं भविष्य )
एक बूँद में बहा देती हूँ।

और इस बार
सच में एक लम्बी सांस भर
उस हरियाये पर्वत को निहारती हूँ

जंहा चढ़ना और उतरना
इतना दुर्गम न होगा
जितना की
इस शुष्क पथरीली पहाड़ी पर रहा.…

अपने पंजो को
गोद में रख
खूब दबाती हूँ
तैयार करती हूँ खुद को
एक नए सफ़र के के लिए.…


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