Monday 2 September 2013

काश कि
 धम्म से गिरती
और छन्न से टूट जाती
बिखर जाती
टुकड़ों टुकड़ों में.…

और साथ ही चुप हो जाती
सारी अनुभूतियाँ...

फिर मैं ठीक हो जाती।

लेकिन ऐसा न हुआ .
मुझे तो लगा
जैसे कि
 मेरी पीठ से खींच लिया हो
वो स्तम्भ
जिसने मुझे सहेज रखा था.….

पैरों में डाल दिए गए हो
लोहे के
बड़े बड़े गोले
जिन्हें मुग़ल -ए - आज़म में देखा था

सर के अन्दर
बांयी आँख के ठीक ऊपर
ठक ठक ठक
मुसलसल चलता रहा हथौड़ा
रात भर.…

कोई पीछे से
आकर मेरे मुंह -नाक
जोर से दबोच,
बंद कर देता,,,

मिनट-मिनट के अंतराल पर
बची-कुची
पूरी ताकत झोंक
मैं एक सांस लेती।

हुह !!

फिर निढाल हो गिर जाती
खड़े रहने की  तमाम कोशिशें 
मेरे साथ ही लड़खड़ा जाती,,,

शारीर की सभी नसों को
एक साथ खींच
बाँध दिया गया हो मुझे
जंहा का तंहा पड़ा रहने के लिए.…

रात
जिस्म की नमी निचोड़

छापती रही
एक आकृति,,,

हु ब हु वैसी
जैसी मैं गिरी थी
साथ घंटे पहले
बिना किसी हरक़त के.…

उस वक्त तुम्हारा कोई
ज़िक्र न था.…

दूसरों को जताने से पहले
जाने कितनी ही दफा
मैंने खुद से  कहा.…

मैं ठीक हूँ।  मैं ठीक हूँ।  मैं ठीक हूँ।

खींचने लगी

रात-रात में सौ गुना बढ़ गए
किसी वजन को.….

अगली सुबह आईने में
पहली बार
खुद को सांवला नहीं
काला  पाया।

और  पहली ही बार
ये भी जाना
एकाएक की तब्दीलियाँ
कई चटकने
 ला देती है।




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