Monday 7 January 2013

वजूद

तिनको और जर्रो से
संवरा वजूद
है तो कुछ भी नहीं
सिर्फ धुल मिटटी

जब-जब वो बिखर जाती
आँगन में
खटकता है उसका
इस तरह बेसलीका हो जाना
चंद निगाहों में

पिता आँखे तरेड
याद दिलाता है
सफ़ेद अचकन की चमक

हुनरमंद माँ
सकपका के बुहार लेती है
समेट देती है उसकी गर्द तलक
आँगन के किसी कोने में

अगले दिन
कूड़े की बाल्टी बेटे को सौंप
महसूस करती है
किसी बोझ का उतर जाना

पिता आश्वस्त हो जाता है
अचकन की चमक के लिए

और पुत्र
बाल्टी घर के बाहर खंगाल
निभा देता है "एक कर्तव्य"

माँ कहती है ..
लड़कियों की डोली भाई ही उठता है






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